समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख अखिलेश यादव का वन नेशन, वन इलेक्शन के प्रति विरोध कुछ हद तक बेतुका लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इस प्रस्ताव में खामियां निकालने के लिए कोई गंभीर मुद्दा नहीं मिल रहा है। उनकी बयानबाजी अधिकतर जनता में भ्रम फैलाने की कोशिश के रूप में देखी जा रही है। अखिलेश का यह विरोध संभवतः इस बात से प्रेरित है कि यह मोदी सरकार की मंशा है।
पार्टी में फूट: समर्थन और विरोध
दिलचस्प बात यह है कि सपा में इस मुद्दे पर फूट भी दिखाई दे रही है। जहां एक ओर अखिलेश यादव विरोध कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर पार्टी के नेता रविदास मेहरोत्रा ने खुलकर इस प्रस्ताव का समर्थन किया है। हालांकि, पार्टी ने उनके बयान को उनकी व्यक्तिगत राय बताकर दूरी बना ली है।
अखिलेश के सवाल: स्पष्टता की मांग
अखिलेश यादव ने इस योजना के तहत कई सवाल उठाए हैं। उन्होंने पूछा है कि यदि यह सिद्धांत लागू होता है, तो क्या सभी चुनाव एक साथ होंगे? अगर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होता है, तो क्या जनता को अगले आम चुनावों का इंतज़ार करना पड़ेगा? उन्होंने यह भी कहा कि इस योजना से चुनावों का निजीकरण होने का खतरा है, जिससे परिणाम प्रभावित हो सकते हैं।
अतीत की बातें: एक साथ चुनाव
यह सच है कि पहले देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते थे। 1951 से 1967 तक यह प्रथा थी। लॉ कमीशन ने 1999 में भी इस दिशा में सिफारिश की थी। वन नेशन, वन इलेक्शन का विचार नया नहीं है, बल्कि इसकी कोशिशें 1983 से शुरू हो चुकी हैं।
बड़े दलों को लाभ?
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने से सबसे अधिक लाभ बड़े राष्ट्रीय दलों, जैसे कि बीजेपी और कांग्रेस, को होगा। छोटी पार्टियों के लिए विभिन्न राज्यों में चुनाव प्रचार करना मुश्किल हो सकता है।
कांग्रेस और बसपा की स्थिति
कांग्रेस ने इस विचार का विरोध किया है, जबकि बहुजन समाज पार्टी ने भी इस पर चिंता जताई है। मायावती ने कहा है कि एक साथ चुनाव कराने का उद्देश्य जनहित में होना चाहिए।









