मुंबई: जुलाई 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेनों में हुए 11 मिनट में 7 सिलसिलेवार बम धमाके, जिनमें 189 लोगों की मौत और 700 से अधिक लोग घायल हुए थे। वह भयावह दिन एक बार फिर चर्चा में है। मामले में गिरफ्तार सभी 11 आरोपियों को बॉम्बे हाई कोर्ट ने बरी कर दिया है, जिससे मुंबई पुलिस और एटीएस की जांच पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं।
क्या अब भी असली गुनहगार आजाद हैं?
हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है- क्या 18 साल बाद भी असली दोषी खुलेआम घूम रहे हैं? क्या जांच एजेंसियों ने गलत लोगों को फंसाया? क्या 189 जानों का न्याय अब अधूरा रह जाएगा?
क्या था पूरा मामला?
11 जुलाई 2006, शाम 6:24 बजे से 6:35 बजे के बीच, मुंबई की पश्चिमी लाइन की 7 लोकल ट्रेनों में एक के बाद एक बम धमाके हुए। धमाकों में 189 लोग मारे गए, जबकि 700 से ज्यादा घायल हुए। मुंबई पुलिस और एटीएस ने जांच में सिमी, लश्कर-ए-तैयबा और पाकिस्तान के संगठनों को दोषी बताया। 12 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से एक की ट्रायल के दौरान मौत हो गई, और बाकी 11 को 2015 में ट्रायल कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई थी।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष ठोस सबूत पेश करने में विफल रहा। कबूलनामों और गवाहों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए। कई गवाहों के बयान आपस में मेल नहीं खाते थे। पुलिस की ओर से पेश की गई थ्योरी में विरोधाभास पाया गया।
अब आगे क्या?
महाराष्ट्र सरकार ने संकेत दिया है कि हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। इस बीच, पीड़ित परिवारों में गुस्सा और निराशा है। वे पूछ रहे हैं “अगर ये लोग निर्दोष हैं, तो हमारे अपनों की मौत के असली गुनहगार कहां हैं?”
जांच एजेंसियों की भूमिका पर सवाल
- क्या 18 साल की जांच समय और संसाधनों की बर्बादी थी?
- क्या राजनीतिक या अंतरराष्ट्रीय दबाव में जांच की दिशा प्रभावित हुई?
- क्या भारत की आतंकी मामलों में जांच प्रणाली कमजोर है?

Author: Ujala Sanchar
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